“ अवाम के नाम ”
हां, मैं शाहीन बाग़ हूं ।
जम्हूरियत का जश्न हूं,
तरक्की की ताल हूं
वतन की परस्ती में
मज़हबी प्रयाग हूं
हां, मैं शाहीन बाग़ हूं ।
मैं नारों की गूंज में
इल्म की आवाज़ हूं,
ख़ामोशी के मुख़ालिफ़
गीत, संगीत और राग हूं
हां, मैं शाहीन बाग़ हूं ।
मैं जवानों का जोश हूं
मैं मुफ़लिसों का रोष हूं,
मैं सर्द रात के विरुद्ध
रौशनी की आग हूं
हां, मैं शाहीन बाग़ हूं ।
मैं दुर्गा में, काली में
ग़रीब की थाली में,
मैं पीर भी, फक़ीर भी, ख़यालों के तीर भी
ज़ुल्मी का अंत, अवाम का अनुराग हूं ।।
हां, मैं शाहीन बाग़ हूं ।